जंग और हम

जंग अब शुरू हो चुकी है
तुम और मैं इस जंग का हिस्सा ज़रूर हैं
पर हम लड़ते नहीं हैं
हम लाशें उठाते हैं
और उन लाशों के ताविजों से
उनका मज़हब निकालते हैं
हंसते हैं यह सोचकर कि
ना वो जिंदा है जिसने यह आग लगाई
ना वो कायम हो पाया जिसने आग भड़काई
रह गए तो बस हम
जो ना शरीक हुए ना दूर रह पाए
जो जिंदा तो हैं पर कायम नहीं
जो हैं पर फ़िर भी नहीं

इन लाशों में ज़िंदगी ढूंढना इतना आसान नहीं
इन राहों पर चलना इतना भी ज़रूरी नहीं
कहीं दूर चलते हैं
वहीं जहां नफ़रत का नामो निशान नहीं
वहीं जहां मैं और तुम ना हो
हो तो सिर्फ़ हम
इन मज़हबों से ऊपर
इन फिरकों से आगे
मौत के इंतज़ार में
ख़ुदा से सवाल करेंगे
की सच आखिर है क्या ?
की काफ़िर कौन है ?
जिसने उसके नाम पर सबको मारा
या जिसने उसका नाम लिए बिना उसकी उम्मत को संभाला?

और जिस दिन हम सच जान लेंगे
वापस आयेंगे
इन लाशों को उठाने
एक राख को दूसरी मिट्टी से मिलाने
ख़ून से लबरेज़ इस अंबर को सजाने ।
वापस आयेंगे एक दिन
इस याद में
की मिट्टी का कोई मज़हब नहीं
वो तो लाशों को दफ़नाने से बाद भी
राख़ से बागबाँ बनाती है ।

©/® समीरा मंसूरी