साहित्यों में डूबी हुई उन आजादियों के नाम,
खिलखिलाती कलियों में गुम उन खुशबुओं के नाम,
वो नाम जो लाज़िम है,
पर मयस्सर कहीं दूर हैं,
जिनकी तलाश में यह दुनिया लाख कसीदे पढ़ती है,
पर वो सवाल करे तो उसे बेहूदा कहती है।
वो नाम जो समझते है हर मुमकिन सवाल को,
जो जवाब देते नहीं थकते इस बवाल को,
की अगर ख्वाबों के दरख़्त पर किसी एक का ही हक है
तो उसे सींचने में क्यों सब ही व्यस्त है?
यह नाम जो गुमनाम से है,
हर घर में आजाद होकर भी कैद से है,
जो हवाओं से उलझते है,
पर सुलझ नहीं पाते।
ऐसे ही कई नामों में गुम एक दर्द कराहता है,
सींच कर खुदको जो दरख़्त बनता है,
हर सवाल को गुल की तरह सजाता है
और उभर कर आसमान से टकराता है।
इन्हीं आसमानों में कैद,
कुछ आज़ाद पंछियों की तरह
यह नाम बरसते है,
इस तरसती धरती को शाद करने,
इसे गुल से आबाद करने,
और मयस्सर यही है इनकी किस्मत
की ये रहते तो पाक हैं,
पर बयां नहीं कर पाते।
दुनिया इन्हे तोड़ती हुई आगे निकाल जाती है,
और यह नाम इतिहास में दफ्न हो जाते है,
होने को ये नाम ही इंकलाब है,
सड़क पर झुलस रही आग है
और ऐसे ही हर गली में बर्बाद है।
ये नाम जो इस शरीर के आगे एक रूह भी है,
पर हम भूल चुके है इन नामों को,
हम पहचानते है सिर्फ़ उनके शरीर को,
जो चीखती पुकारती है,
और फिर बर्बाद हो जाती है।
©\® समीरा मंसूरी
♥️♥️
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Happy Women’s Day Sameera! You are amazing poetic soul! ❤️
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